Monday, April 27, 2020

दूसरी इकाई - पाठ 11, पेज 97, “समता की ओर” (कवि: श्री मुकुटधर पांडेय)

हिंदी लोकभारतीदसवीं कक्षा 
दूसरी इकाई - पाठ 11, पेज 97,
“समता की ओर”           (कवि: श्री मुकुटधर पांडेय)

(पद 1)   
बीत गया हेमंत भ्रात, शिशिर ऋतु आई !
प्रकृति हुई  द्युतिहीन , अवनि में कुंझटिका है छाई ।
अर्थ -> कवि कहते हैं कि हेमंत ऋतु का समय बीत गया, और अब शिशिर ऋतु का आगमन हो गया है। शिशिर ऋतु की कँपा देने वाली ठंड के कारण प्रकृति की आभा ख़त्म हो गई और पृथ्वी पर  धुँधलका छा गया है।

(पद 2)   
पड़ता  खूब तुषार पद्मदल तालों में  बिलखाते ,
अन्यायी नृप के दंडों से यथा लोग दुख पाते ।
अर्थ -> ठंड के कारण ख़ूब बर्फ़ गिर रही है। इससे तालाबों में खिले हुए कमल के फूलो को बहुत कष्ट हो रहा है। कवि कहते हैं ये कष्ट उसी तरह का है, जैसे किसी निर्दयी और अन्यायी राजा के तरह-तरह के दंडों से उसके राज्य की प्रजा दुखी होती है।

(पद 3)
निशा काल में लोग घरों में निज-निज जा सोते हैं,
बाहर श्वान, स्यार चिल्लाकर बार-बार रोते हैं।
अर्थ -> रात्रि के समय ठंड हो जाती है। ऐसे समय लोग अपने-अपने घरों में जाकर सो जाते हैं। पर बाहर कुत्तों और सियार जैसे जानवरों का ठंड के मारे बुरा हाल होता है। वे असहाय प्राणी चिल्ला-चिल्लाकर सारी रात रोते रहते हैं।

(पद 4)   
अर्द्ध रात्रि को घर से कोई जो आँगन को  आता,
शून्य गगन मंडल को लख यह मन में है भय पाता ।
अर्थ -> आधी रात को यदि कोई व्यक्ति घर के आँगन में आकर सूने आकाश की ओर देखता है, तो वहाँ का अंधेरा दृश्य देखकर उसे डर लगने लगता है।

(पद 5)   
तारे निपट मलीन चंद ने पांडुवर्ण  है पाया,
मानो किसी राज्य पर है, राष्ट्रीय कष्ट कुछ आया ।
अर्थ -> ठंडक भरे इस मौसम में आकाश के तारे भी धुँधले दिखाई देते हैं और चंद्रमा का सफेद रंग भी पीलापन लिए हुए है। यह सब देखकर ऐसा लगता है, जैसे किसी राज्य पर कोई राष्ट्रीय संकट आ गया हो।

(पद 6)   
धनियों को है मौज रात-दिन हैं उनके पौ-बारे,
दीन दरिद्रों के मत्थे ही पड़े शिशिर दुख सारे ।
अर्थ -> कवि कहते हैं कि शिशिर ऋतु की कष्टदायी ठंड के दुख केवल लाचार व ग़रीबों के लिए ही हैं। धनिक वर्ग के लोगों को तो रात-दिन आनंद ही आनंद है क्योंकि उनके पास ठंड से बचने की सब सुविधाएँ होती हैं।

(पद 7)   
वे खाते हैं हलवा-पूरी, दूध-मलाई ताजी,
इन्हें नहीं मिलती पर सूखी रोटी और न भाजी । 
अर्थ -> धनिक वर्ग के लोग हलवा-पूड़ी और ताजी दूध-मलाई खाते हैं और ठंड का भी आनंद लेते हैं, लेकिन लाचार और ग़रीबों को सूखी रोटी व सब्जी भी नसीब नहीं होती।

(पद 8)   
वे सुख से रंगीन कीमती ओढ़ें शाल-दुशाले,
पर इनके कंपित बदनों पर गिरते हैं नित पाले।
अर्थ -> धनिक लोग रंगीन और मूल्यवान शाल-दुशाले ओढ़ते हैं जिससे उन्हें ठंड नहीं लगती। किन्तु ऐसे समय में गरीबों को ठंड से काँपते हुए रातें काटनी पड़ती हैं, और उन्हें प्रतिदिन पाले का भी सामना करना पड़ता है।

(पद 9)   
वे हैं सुख साधन से पूरित सुधर घरों के वासी,
इनके टूटे-फूटे घर में छाई सदा उदासी।
अर्थ -> अमीर लोगों के पास सुख के कई साधन होते हैं और वे सुंदर घरों में रहते हैं। दूसरी ओर लाचार व ग़रीब लोग टूटे-फूटे घरों व झोंपड़ियों में रहते हैं जहाँ सुविधाएँ नहीं होती। वहाँ सदा उदासी का माहौल रहता है।

(पद 10)   
पहले हमें उदर की चिंता थी न कदापि सताती,
माता सम थी प्रकृति हमारी पालन करती जाती ।।
अर्थ -> पहले सब लोग प्रकृति पर निर्भर रहते थे। किसी को पेट भरने की चिंता नहीं होती थी, क्योंकि प्रकृति से ही सारी आवश्यकताएँ पूरी हो जाती थी। वह माँ की तरह हमारा पालन-पोषण करती थी।

(पद 11)   
हमको भाई का करना उपकार नहीं क्या होगा,
भाई पर भाई का कुछ अधिकार नहीं क्या होगा।
अर्थ -> कवि कहते हैं कि मनुष्य-मनुष्य में कोई अंतर नहीं होता। सभी का आपस में भाई-भाई का नाता है। एक भाई का दूसरे भाई पर कुछ न कुछ अधिकार होता ही है। इसलिए हमारे मन में एक दूसरे पर उपकार करने की भावना होनी चाहिए।

स्वाध्याय (“समता की ओर”)

निम्न मुद्दों के आधार पर पद्य विश्लेषण :-

रचनाकार: मुकुटधर पांडेय.
रचना का प्रकार: नई कविता.
पसंद की पंक्तियाँ :
    "हमको भाई का करना उपकार नहीं क्या होगा,
    भाई पर भाई का कुछ अधिकार नहीं क्या होगा।"
    पसंद होने का कारण : जन्म से सभी मनुष्य एक जैसे होते हैं। मनुष्य का आपस में भाई-भाई का       नाता होता है । इन पंक्तियों में कहा गया है कि आपस में एक-दूसरे का उपकार करने की भावना        मनुष्य में होनी चाहिए।
रचना से प्राप्त संदेश: सभी मनुष्य समान होते हैं।कोई भी अपने को बड़ा या छोटा नहीं समझे। मनुष्य को एक - दूसरे का उपकार करना चाहिए।
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दूसरी इकाई - पाठ 8, पेज 80 "अपनी गंध नहीं बेचूँगा" (कवि: बालकवि बैरागी)

हिंदी लोकभारतीदसवीं कक्षा 
दूसरी इकाई - पाठ 8, पेज 80  
"अपनी गंध नहीं बेचूँगा"           (कवि: बालकवि बैरागी)

(पद 1)  
चाहे सभी सुमन बिक जाएँ चाहे ये उपवन बिक जाएँ
चाहे सौ फागुन बिक जाएँ पर मैं अपनी गंध नहीं बेचूँगा
                                           अपनी गंध नहीं बेचूँगा ।।
अर्थ -> स्वाभिमानी फूल अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तैयार है, पर वह किसी भी हालत में अपने स्वाभिमान पर आँच नहीं आने देना चाहता है।
वह कहता है कि चाहे सारे फूल बिक जाएँ, उपवन भी बिक जाएँ, सारी बहारें भी क्यों न बिक जाएँ, पर वह अपनी सुगंध को, जिसे वह अपना स्वाभिमान मानता है, उसे किसी हालत में नहीं बेच सकता।


(पद 2)   
जिस डाली ने गोद खिलाया जिस कोंपल ने दी अरुणाई
लछमन जैसी चौकी देकर जिन काँटों ने जान बचाई
इनको पहला हक़ आता है चाहे मुझको नोचें-तोड़ें
चाहे जिस मालिन से मेरी पँखुरियों के रिश्ते जोड़ें
ओ मुझ पर मँडराने वालों मेरा मोल लगाने वालों
जो मेरा संस्कार बन गई वो सौगंध नहीं बेचूँगा।
                                 अपनी गंध नहीं बेचूँगा।।

अर्थ -> फूल कहता है कि पौधे की जिस डाली ने उसे अपनी गोद में खिलाया था, जिन कोंपलों ने उसे लालिमा दी थी और जिन काँटों ने लक्ष्मण जी की तरह पहरा देकर उसे तोड़े जाने से बचाया था, उन्हें वह कभी भूल नहीं सकता। उस पर पहला अधिकार इन्हीं का हैं। वे चाहे उसे नोचें या तोड़ें या किसी मालिन को दे दें, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। फूल पर नज़रें गड़ाने वालों और उसकी क़ीमत लगाने वालों से वह कहता है कि मैंने अपनी सुगंध को न बेचने की क़सम खाई है, वह उसका संस्कार बन गई है और इसलिए वह अपनी सुगंध नहीं बेचेगा।

(पद 3)   
मौसम से क्या लेना मुझको ये तो आएगा-जाएगा
दाता होगा तो दे देगा खाता होगा तो खाएगा ।
कोमल भँवरों के सुर सरगम पतझारों का रोना-धोना
मुझपर क्या अंतर लाएगा पिचकारी का जादू-टोना
ओ नीलाम लगाने वालों पल-पल दाम बढ़ाने वालो
मैंने जो कर लिया स्वयं से वो अनुबंध नहीं बेचूँगा।
                                     अपनी गंध नहीं बेचूँगा।।

अर्थ -> फूल कहता है कि मौसम कैसा भी हो, मौसम का उस पर कोई असर नहीं पड़ता। वह हर स्थिति में अपने आप को  स्थिर रखने में सक्षम है। वह कभी घबराता नहीं है। चाहे उसकी कोमल-कोमल पंखुड़ियों पर भौंरों के गुंजन का सरगम सुनाई देता हो या पतझड़ का सन्नाटा, उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। फुआरों से सिंचन भी उसे नहीं रिझाता। वह अपनी बोली लगाने वालों व क़ीमत लगाने वालों को संबोधित करते हुए कहता है कि मैंने अपने आप से अपने स्वाभिमान का अनुबंध कर लिया है और ठान लिया है कि मैं अपने स्वाभिमान पर आँच नहीं आने दूँगा। 
और इसलिए वह अपनी सुगंध नहीं बेचेगा 

(पद 4)   
मुझको मेरा अंत पता है पँखुरी 
-पँखुरी झर जाऊँगा
लेकिन पहिले पवन परी संग एक-एक के घर जाऊँगा
भूल-चूक की माफ़ी लेगी सबसे मेरी गंध कुमारी
उस दिन ये मंडी समझेगी किसको कहते हैं खुद्दारी
बिकने से बेहतर मर जाऊँ अपनी माटी में झर जाऊँ
मन ने तन पर लगा दिया जो वो प्रतिबंध नहीं बेचूँगा ।

अर्थ -> फूल कहता है कि जिसका जन्म हुआ है उसका अंत निश्चित है।मुझे पता है कि एक दिन मैं भी पँखुरी-पंखुरी करके झर जाऊँगा और मेरा अंत हो जाएगा। पर इसके पहले मैं हवा के साथ  वातावरण में फैलकर एक-एक के पास जाऊँगा और मेरी सुगंध जाने-अनजाने में किए की माफ़ी माँग लेगी। फूल कहता है कि उस दिन बाजार और ख़रीददार सब को यह बात समझ आ जाएगी कि स्वाभिमान क्या होता है और उसके सम्मान के लिए लोग कितना त्याग करने के तैयार रहते हैं। फूल का कहना है कि किसी के हाथों बिकने से तो अच्छा है कि मैं मर जाऊँ और अपने देश की मिट्टी में मिल जाऊँ। मैंने अपनी इच्छा से शरीर पर जो प्रतिबंध लगा लिया है, उस प्रतिबंध को मैं कभी नहीं बेचूंगा।

स्वाध्याय (
अपनी गंध नहीं बेचूँगा)

(1) फूल क्या बेचना नहीं चाहता ?
गंध
सौगंध
अनुबंध
प्रतिबंध

(2) फूल का किन किन से  संबंध है->
उपवन
डाली
कोंपल
काँटें.

(3) अंत पता होने पर भी फूल की क्या अभिलाषा है ->
मरने से पहले एक-एक के घर जाना.
भूल-चूक के लिए माफ़ी माँगना.

(4) निम्नलिखित मुद्दों के आधार पर पद्य विश्लेषण ->
रचनाकार का नाम-> श्री बालकवि बैरागी.
रचना की विधा-> गीत.
पसंद की पंक्ति ->
चाहे सभी सुमन बिक जाएँ, चाहे ये उपवन बिक जाएँ,
चाहे सौ फागुन बिक जाएँ, पर मैं गंध नहीं बेचूँगा।
पंक्तियाँ पसंद होने का कारण-> इन पंक्तियों में फूल हर हालत में अपने स्वाभिमान को सर्वोपरी मानता है। इसके लिए उसे कोई भी त्याग करना पड़े, वह उसके लिए तैयार है। वह अपने स्वाभिमान को किसी भी हालत में बनाए रखना चाहता है।

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दूसरी इकाई - पाठ 6, पेज 74, “हम उस धरती की संतति हैं” (कवि : उमाकांत मालवीय)

हिंदी लोकभारतीदसवीं कक्षा 
दूसरी इकाई - पाठ 6, पेज 74, 
“हम उस धरती की संतति हैं”           (कवि : उमाकांत मालवीय)

(पद 1)

हम उस धरती के लड़के हैं, जिस धरती की बातें
क्या कहिए; अजी क्या कहिए; हाँ क्या कहिए।
यह वह मिट्टी, जिस मिट्टी में खेले थे यहाँ ध्रुव-से बच्चे ।
अर्थ-> ( इस कविता में लड़के, अपने आपको लड़कियों से बढ़- चढ़कर बताते हुए, अपनी प्रशंसा में  कहते हैं-) हम उस धरती पर रहने वाले लड़के हैं, जिनकी जितनी प्रशंसा की जाए कम हैं। यह वही धरती है, जहाँ ध्रुव जैसे महापुरुष का जन्म हुआ था और वे इसी मिट्टी में खेले थे।
(पद 2)
यह मिट्टी, हुए प्रहलाद जहाँ, जो अपनी लगन  के थे सच्चे ।
शेरों के जबड़े खुलवाकर, थे जहाँ भरत दतुली गिनते,
जयमल-पत्ता अपने आगे, थे नहीं किसी को कुछ गिनते !

अर्थ ->इसी मिट्टी में भक्त 
प्रहलाद  का जन्म हुआ था। सारी दुनिया को मालूम है कि वे अपनी धुन के कितने सच्चे थे। यहीं  पर भरत जैसे वीर और साहसी बालक का जन्म हुआ था। वे इतने निडर थे कि शेरों के मुँह खुलवाकर उनके दाँत गिना करते थे। जयमल और पत्ता जैसे वीर भी इसी मिट्टी में पैदा हुए थे, जो अपनी वीरता के आगे किसी से डरते नहीं थे।
(पद 3)
इस कारण हम तुमसे बढ़कर , हम सबके आगे चुप रहिए।
अजी चुप रहिए, हाँ चुप रहिए। हम उस धरती के लड़के हैं ........

अर्थ->लड़के लड़कियों को नीचा दिखाते हुए कहते हैं कि इन सभी कारणों से हम तुम लोगों से बढ़कर हैं। इसलिए तुम सब हमारा सामना नहीं कर सकती हो। अत: हमारे सामने तुम लोग अपना मुँह बंद रखो।कुछ बोलने की कोशिश मत करो।

(पद 4)
बातों का जनाब, शऊर नहीं, शेखी न बघारें, हाँ चुप रहिए।
हम उस धरती की लड़की हैं, जिस धरती की बातें क्या कहिए।

अर्थ ->अब लड़कियाँ लड़कों को जवाब दे रही हैं कि आप लोगों को बात करने का ढंग तक तो मालूम नहीं हैं। आप अपनी प्रशंसा ख़ुद मत कीजिए और चुप रहिए। 
हम उस धरती की लड़कियाँ हैं, जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम हैं।
(पद 5)  
अजी क्या कहिए, हाँ क्या कहिए।
जिस मिट्टी में लक्ष्मीबाई जी, जन्मी थीं झाँसी की रानी।
रज़िया सुलताना, दुर्गावती, जो ख़ूब लड़ी थीं मर्दानी ।
जन्मी थी बीबी चाँद जहाँ , पद्मिनी के जौहर की ज्वाला ।
सीता, सावित्री की धरती, जन्मी ऐसी-ऐसी बाला।
गर डींग जनाब उड़ाएँगे, तो मजबूरन ताने सहिए, ताने सहिए, ताने सहिए।
हम उस धरती की लड़की हैं....

अर्थ ->हम उस धरती की लड़कियाँ हैं, जिसकी मिट्टी में वीरांगना झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ था।
दुर्गावती और रज़िया सुलताना जैसी मर्दानी वीरांगनाएँ भी इसी मिट्टी में पैदा हुई थीं, जिन्होंने लड़ाई के मैदान में अपना अद्भुत पराक्रम दिखाया था।
चाँद बीबी जैसी वीरांगना और जौहर की ज्वाला में हँसते-हँसते कूद जाने वाली महान नारी पद्मिनी का जन्म भी इसी मिट्टी में हुआ था।
यह सीता और सावित्री जैसी महान नारियों की जन्म-स्थली है।
यदि आप लड़के लोग अपने श्रेष्ठ होने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, तो हमारे ताने भी सहिए। याद रखिए, हम इन महान नारियों की धरती की लड़कियाँ हैं।
(पद 6)  
यों आप खफा क्यों होती हैं, टंटा काहे का आपस में।
हमसे तुम या तुमसे हम बढ़-चढ़कर क्या रक्खा इसमें।
झगड़े से न कुछ हासिल होगा, रख देंगे बातें उलझा के।
बस बात पते की इतनी है, ध्रुव या रज़िया भारत माँ के।
भारत माँ के रथ के हैं हम दोनों ही दो-दो पहिये, अजी दो पहिये, हाँ दो पहिये ।
हम उस धरती की संतति हैं......

अर्थ -> (लड़कियों का जवाब सुनकर लड़के समझदारी की बात करते हुए कहते हैं....)  आप नाराज़ क्यों होती हैं? इसमें आपस में झगड़ने की कोई बात नहीं हैं।
इस बात में क्या रखा है कि हमसे आप लोग बढ़कर हैं अथवा आपसे हम लोग बढ़कर हैं।
इस तरह की बातें हमें आपस में उलझाकर रख देंगी और इससे न हमें फ़ायदा होगा और न आपको ही। सच्ची बात तो यह है कि ध्रुव और रज़िया दोनों ही भारत माँ की संतान हैं। हम लोग भारत माता के रथ के दो पहिए हैं। हम सब इसी धरती की संतान हैं ।
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दूसरी इकाई - पाठ 1, पेज 51, “बरषहिं जलद” (कवि : गोस्वामी तुलसीदास)

हिंदी लोकभारतीदसवीं कक्षा 
दूसरी इकाई - पाठ 1, पेज नंबर 51 
“बरषहिं जलद”      (कवि : गोस्वामी तुलसीदास)

(पद 1)  चौपाई
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा ।।
दामिनि दमक रहहिं घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ।।
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध विद्या पाएँ ।।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसे ।।
छुद्र नदी भरि चली तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई ।।
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहिं माया लपटानी ।।
समिटि-समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ।।
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होई अचल जिमि जिव हरि पाई ।।

अर्थ -> कवि कहते हैं कि आकाश में बादल उमड़-घुमड़कर भयंकर गर्जना कर रहे हैं । (श्रीरामजी कह रहे हैं कि) प्रिया (श्रीसीता जी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली आकाश में ऐसे चमक रही है, जैसे कि दुष्ट व्यक्ति की क्षणिक मित्रता जो बिजली की तरह चमक कर लुप्त हो जाती है।
बादल पृथ्वी के काफ़ी नीचे उतरकर बरस रहे हैं। ठीक उसी प्रकार विद्वान व्यक्ति भी विद्या प्राप्त करके विनम्र हो जाते हैं। बूँदों की चोट पहाड़ पर पड़ रही है और पहाड़ बूँदों के प्रहार को शांत भाव से सह रहे हैं, जिस प्रकार संत पुरुष दुष्टों के कटु वचनों को सह लेते हैं।
छोटी नदियाँ बारिश के जल से भरकर अपने किनारों को तोड़ती हुई आगे बढ़ रही हैं, जैसे कि थोड़ा-सा धन पाकर ही दुष्ट लोग इतराने लगते हैं। बरसात का पानी धरती पर गिरते ही गंदा हो रहा है, ऐसा लग रहा जैसे प्राणी से माया लिपट गई है।
बारिश का पानी एकत्र होकर तालाबों में भर रहा है। जिस तरह सज्जन व्यक्ति के पास अच्छे गुण चले आते हैं। 
नदी का पानी समुद्र में जाकर उसी प्रकार स्थिर हो जाता है जिस प्रकार जीव भी हरि को प्राप्त करके  अचल हो जाता है यानि मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।

(पद 2)  दोहा
हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परहि नहिं पंथ ।
जिमि पाखंड बिबाद तें, लुप्त होहिं सदग्रंथ ।।

अर्थ -> पृथ्वी 
हरी-भरी हो जाने पर घास भी बड़ी हो गई है, जिससे रास्तों का पता ही नहीं चल रहा है। यह दृश्य ऐसा लगता है, जैसे पाखंडीयों के बेकार विवाद के कारण अच्छे ग्रंथ लुप्त हो जाते हैं।

(पद 3)  चौपाई
दादुर धुनि चहुँ दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ।।
नव पल्लव भए बिटप अनेका, साधक मन जस मिले बिबेका ।।
अर्क-जवास पात बिनु भयउ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ ।।
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं घूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहिं दूरी ।।
ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी ।।
निसि तम घन खद्योत बिराजा । जनु  दंभिन्ह कर मिला समाजा।।
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि  बुध तजहिं मोह-मद-माना ।।
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहिं पाइ जिमि धर्म पराहीं ।।
विविध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाई सुराजा ।।
जहँ-तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजे ज्ञाना ।।
अर्थ -> कवि कहते हैं कि बारिश में चारों दिशाओं से आती हुई मेंढकों की आवाज़ ऐसी लगती है मानो विद्यार्थियों का समूह वेद-पाठ कर रहा हो। अनेक वृक्षों पर नई कोंपलें आ गई हैं, वे ऐसे  सुहावने लग रहे हैं, जैसे कि साधना करने वाले व्यक्ति का मन ज्ञान प्राप्त होने  पर प्रफुल्लित हो जाता है।
मदार और जवासा के पौधें पत्तों से रहित हो गए हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानों अच्छे शासक के राज्य में दुष्टों का धंधा चला गया हो। अब धूल खोजने पर भी कहीं नहीं मिलती है। जैसे कि क्रोध हमें धर्म से दूर कर देता है, उसी प्रकार बारिश ने धूल को नष्ट कर दिया है।I
अनाज से लहलहाती हुई पृथ्वी कुछ इस प्रकार शोभायमान हो रही है, जैसे उपकार करने वाले व्यक्ति की संपति शोभा पाती है। रात के अंधेरे में जुगनू चारों ओर दिखाई दे रहे हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे घमंडियों का समूह एकत्र हो गया है।
चतुर किसान अपनी फ़सलों से घास- फूस निकाल कर फेंक रहे हैं। इसे देखकर ऐसा लगता जैसे विद्वान लोग मोह, मद व घमंड का त्याग कर रहे हों।
बरसात के दिनों में चकवा पक्षी कहीं नहीं दिखाई दे रहा है। यह ऐसा लगता है जैसे कलियुग में धर्म पलायन कर गया हो।
यह पृथ्वी अनेक प्रकार के जीवों से भरी पड़ी है। यह उसी तरह शोभायमान हो रही है, जैसे अच्छे राजा के राज्य में प्रजा का विकास होता है।
यहाँ-वहाँ अनेक राही थककर इस तरह ठहरे हुए हैं, जैसे मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होने पर इंद्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और वासना की ओर जाना छोड़ देती हैं।
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पाठ 11, पेज 49, “कृषक गान” (कवि : दिनेश भारद्वाज)

हिंदी लोकभारतीदसवीं कक्षा 
पाठ 11, पेज 49,
“कृषक गान”             (कवि : दिनेश भारद्वाज) 

(1) हाथ में संतोष की तलवार ले जो उड़ रहा है,
जगत में मधुमास, उस पर सदा पतझर रहा है,
दीनता अभिमान जिसका, आज उसपर मान कर लूँ।
उस कृषक का गान कर लूँ ।।
अर्थ -> कवि ने कृषक के महत्व को बताते हुए कहा है कि वह अभावों में जीता है लेकिन उसके पास संतोष रुपी धन है। पूरे संसार में कैसा भी वसंत आए लेकिन कृषक के जीवन में सदैव पतझड़ ही बना रहता है। ऐसी अभावों से भरी परिस्थितियों मे भी उसे किसी से माँगना अच्छा नहीं लगता। कृषक को अपनी दीन-हीन दशा पर भी नाज है। मैं ऐसे व्यक्ति पर अभिमान करना चाहता हूँ और उस कृषक का गुणगान करना चाहता हूँ।

(2) चूसकर श्रम रक्त जिसका, जगत में मधुरसबनाया,
एक-सी जिसको बनाई, सृजक ने भी धूप-छाया,
मनुजता के ध्वज तले, आह्वान उसका आज कर लूँ ।
उस कृषक का गान कर लूँ ।।

अर्थ -> कृषक दिन- रात खेतों में काम करता है। अपने रक्त को पसीने के रुप में बहाकर संपूर्ण जगत को जीवन-रस प्रदान करता है। ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में उसके लिए धूप-छांव दोनों एक-सी ही हैं। मैं मानवता के नाते उसका आह्वान करना चाहता हूँ 
और उस कृषक का गुणगान करना चाहता हूँ। 

(3) विश्व का पालक बन जो, अमर उसको कर रहा है,
किंतु अपने पालितों के, पद दलित हो मर रहा है,
आज उससे कर मिला, नव सृष्टि का निर्माण कर लूँ।
उस कृषक का गान कर लूँ ।।

अर्थ -> हमारा कृषक अन्नदाता है। वह पालक बन कर 
पूरे विश्व को जीवन देता है। किंतु अफ़सोस है कि जिन लोगों को वह पालता है, उन्हीं के द्वारा पददलित हो कर वह आत्महत्या करने पर मजबूर है। कवि कहते हैं कि, मैं कृषक के हाथ से हाथ मिलाकर एक नई दुनिया का निर्माण करूँ,  और उस कृषक का गुणगान कर लूँ।

(4) क्षीण निज बलहीन तन को, पत्तियों से पालता जो,
ऊसरों को ख़ून से निज, उर्वरा कर डालता जो,
छोड़ सारे सुर-असुर, मैं आज उसका ध्यान कर लूँ।
उस कृषक का गान कर लूँ।।

अर्थ-> कृषक को अपने जीवन में सारी सुविधाएँ नहीं मिल पातीं। उसे अपने दुर्बल व क्षीण शरीर को पालने-पोसने के लिए केवल साधारण वस्तुएँ ही प्राप्त होती हैं। वह बंजर धरती को भी अपनी कड़ी मेहनत से उपजाऊ बना देता है। कवि कहते हैं कि सभी देव-दानवों को छोड़ कर आज मैं कृषक का ही ध्यान करूँ 
और उसका गुणगान कर लूँ।   

(5) यंत्रवत जीवित बना है, माँगते अधिकार सारे,
रो पड़ी पीड़ित मनुजता, आज अपनी जीत हारे,
जोड़कर कण-कण उसी के, नीड़ का निर्माण कर लूँ।
उस कृषक का गान कर लूँ।।

अर्थ ->। हमारा किसान एक जिंदा मानव होते हुए भी मशीन की तरह लगातार काम करता है। दूसरे सब लोग अधिकार मांगते हैं लेकिन कृषक अपना काम ही करता रहता है। उसकी ऐसी दुर्दशा देखकर आज मानवता रो रही है। मै कण-कण जोड़कर कृषक के लिए एक ऐसे घर का निर्माण करुँ, जहाँ उसे एक अच्छे जीवन के लिए सुविधाएँ प्राप्त हों
 और मैं उसका गुणगान कर लूँ। 

स्वाध्याय : पाठ 11 (कृषक गान)
(1) कवि की क्या चाह है ?
क.  कृषक की संतोष की भावना और स्वाभिमान पर मान करना.
ख.  मनुजता के ध्वज के नीचे कृषक का आह्वान करना.

(2) कृषक किन स्थितियों में अविचल रहता है ?
क.  पतझड़
ख.  धूप.

(3) कविता में प्रयुक्त ऋतुओं के नाम :
क.  मधुमास (बसंत)
ख.  पतझड़.

(4) निम्नलिखित मुद्दों के आधार पर पद्य विश्लेषण :
क.  रचनाकार का नाम -> श्री दिनेश भारद्वाज
ख.  कविता की विधा -> गीत (गान)
ग.  पसंदीदा पंक्ति -> हाथ में संतोष की तलवार ले जो उड़ रहा है।
घ.  पसंदीदा होने का कारण-> अनगिनत अभावों के होते हुए भी कृषक के पास संतोष रुपी धन है।
च.  रचना से प्राप्त संदेश (प्रेरणा )-> कृषक दिन-रात मेहनत करके संपूर्ण सृष्टि का पालन करता है।        हमें उसके परिश्रम के महत्व को समझना चाहिए। उसका सम्मान करना चाहिए। 
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पाठ 8, पेज 33, "गजल" (कवि : माणिक वर्मा )

हिंदी लोकभारती, दसवीं कक्षा 
पाठ 8, पेज 33,
"गजल"           (कवि : माणिक वर्मा )

आपसे किसने कहा स्वर्णिम शिखर बनकर दिखो,
शौक दिखने का है तो फिर नींव के अंदर दिखो। 
अर्थ -> कवि इन पंक्तियों के माध्यम से कहना चाहते हैं कि समाज के लोग सुनहरे शिखरों के समान ही सम्मान पाना चाहते हैं परंतु वास्तव में देखा जाए तो इन शिखरों से अधिक महत्व तो उन ईंटों व पत्थरों का है जिनकी नींव पर शिखर बने हैं. इसलिए हमें प्रशंसा का लोभ त्याग कर नींव की ईंटों के समान कुछ अच्छा व मज़बूत काम करना चाहिए। 

चल पड़ी तो गर्द बनकर  आस्मानों  पर लिखो,
और अगर बैठो कहीं पर तो मील का पत्थर दिखो। 
अर्थ -> इन पंक्तियों में कवि का कहना है कि जिस तरह से धरती पर आँधी आने से धूल भी आसमान को छू लेती है, उसी प्रकार तुम भी अपने अच्छे कामों के द्वारा आसमान की ऊँचाइयाँ छू लो. यदि तुम्हें बीच में ही ठहरना पड़ जाए तो मील के पत्थर की तरह बनो जो कि पथिक को मंज़िल की ओर बढ़ने में सहायता करता है। 

सिर्फ़ देखने के लिए दिखना कोई दिखना नहीं,
आदमी हो तुम अगर तो आदमी बनकर दिखो। 
अर्थ -> कवि कहते हैं कि मानव जीवन में केवल अपने सजने- सँवरने का ही महत्त्व नहीं होता। बल्कि हमें मानवीय गुणों को अपनाना चाहिए जिसके कारण पूरा समाज हमें एक अच्छे इंसान के रूप में पहचाने। 

ज़िंदगी की शक्ल जिसमें टूटकर बिखरे नहीं,
पत्थरों के शहर में वो आईना बनकर दिखो। 
अर्थ -> हमारा व्यक्तित्व ऐसा होना चाहिए कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हम विचलित नहीं हों. हम बिना टूटे, बिना बिखरे हर परिस्थिति का  डटकर सामना करें व अपने लक्ष्य को प्राप्त करें। 

आपको महसूस होगी तब हरइक दिल की जलन,
जब किसी धागे-सा जलकर मोम के भीतर दिखो। 
अर्थ -> इन पंक्तियों में बताया गया है कि हमें प्रत्येक मानव से सहानुभूति होनी चाहिए लेकिन यह तभी संभव होगा जब हम मोमबत्ती के धागे की तरह ख़ुद जलकर दूसरों के जीवन में प्रकाश फैलाएँ। 

एक जुगनू ने कहा मैं भी तुम्हारे साथ हूँ,
वक़्त की इस धुँध में तुम रोशनी बनकर दिखो।
अर्थ -> कवि कहते हैं कि जब कभी निराशा व असफलताओं का अंधकार छाया हुआ हो, तब  एक जुगनू  की तरह हमें चमक कर, हताश व निराश लोगों के मन में आशा की किरण जगाना चाहिए। 

एक मर्यादा बनी है हम सभी के वास्ते,
गर तुम्हें बनना है मोती सीप के अंदर दिखो। 
अर्थ -> सभी मनुष्यों के लिए समाज में रहने की कुछ सीमाएँ होती हैं, जिनका पालन सबको करना पड़ता है।  जिस प्रकार सीप की सीमा के अंदर मूल्यवान मोती छिपा होता है, उसी प्रकार हमें भी सीमाओं में रह कर ही अच्छे काम करके महान बनना चाहिए। 

डर जाए फूल बनने से कोई नाज़ुक कली,
तुम ना खिलते फूल पर तितली के टूटे पर दिखो.
अर्थ -> यदि कोई कोमल कली खिलने से डर रही हो कि मेरे खिलते ही तितली रस चूसकर मुझे परेशान करेगी, तो तुम उस फूल के डर को दूर करने मदद करो। 

कोई ऐसी शक्ल तो मुझको दिखे इस भीड़ में,
मैं जिसे देखूँ उसी में तुम मुझे अक्सर दिखो। 
अर्थ -> यह संसार मनुष्यों का सागर है. भीड़ में अनगिनत चेहरे हर तरफ़ दिखाई देते हैं. हे ईश्वर, मैं चाहता हूँ कि मैं जिसे भी देखूँ, मुझे उस में तुम ही नज़र आओ। 
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स्वाध्याय  (पाठ क्रमांक 8, "गजल") 
(1) मनुष्य की अपेक्षाएँ?
क.  मानवीय गुणों को अपनाना.
ख.  निराश व हताश लोगों के मन में आशा की किरण जगाना.

(2) कवि किस तरह दिखने के लिए कह रहा है ?
क.  नींव की तरह.
ख.  मील के पत्थर की तरह.
ग.  आदमी बनकर.
घ.  आईना बनकर.
च.  धागे सा जलकर.

(3) ग़ज़ल में प्रयुक्त प्राकृतिक घटक?
क.  फूल.
ख.  तितली.
ग.  मोती.
घ.  सीप.  
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पाठ 6, पेज 24, "गिरधर नागर" (कवि:संत मीराबाई)

हिंदी लोकभारतीदसवीं कक्षा 
पाठ 6, पेज 24
"गिरधर नागर"           (कवि : संत मीराबाई)

पद (1)
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई
जाके सिर मोर मुकट, मेरो पति सोई
छाँड़ि दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई ?
संतन ढिग बैठि-बैठि, लोक लाज खोई।
अँसुवन जल सींचि-सींचि प्रेम बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई आणँद फल होई।।
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन जब काढ़ि लियो छाछ पिये कोई।।
भगत देखी राजी हुई जगत देखि रोई।
दासी ‘मीरा’ लाल गिरिधर तारो अब मोही।।

अर्थ -> संत मीरा बाई भगवान कृष्ण के प्रति अपना प्रेम प्रकट कर रही हैं।  उनका कहना है कि गिरि को धारण करने वाले कृष्ण के सिवा मेरा कोई नहीं है।  जिनके मस्तक पर मोर का मुकुट है वही मेरे पति हैं। उनके लिए मैंने कुल की मर्यादा छोड़ दी है। संतों के साथ बैठ-बैठ कर मैंने लोक-लाज भी त्याग दी है। मैंने प्रेम रुपी बेल को अपने आँसुओं के जल से सींच-सींचकर बड़ा किया है। अब तो यह प्रेम-बेल फैल गई है और इसमें आनंद रुपी फल लगेंगे। मैंने जमे हुए दूध को मथानी से बड़े प्रेम से बिलोया और कृष्ण-प्रेम रुपी मक्खन को निकाल लिया है तथा छाछ को निस्सार छोड़ दिया है। मैं कृष्ण के भक्त को देखकर ख़ुश होती हूँ लेकिन संसार का व्यवहार देखकर रो पड़ती हूँ। हे प्यारे गिरधर! मीरा तो    आपकी दासी है, उसे इस संसार रुपी भव-सागर से पार लगाओ।

पद (2)
हरि बिन कूण गती मेरी।।
तुम मेरे प्रतिपाल कहिये मैं  रावरी चेरी।।
आदि -अंत निज नाँव तेरो हीमायें फेरी।
बेर-बेर पुकार कहूँ प्रभु आरति है तेरी।।
यौ संसार बिकार सागर बीच में घेरी।
नाव फाटी प्रभु पाल बाँधो बूडत है बेरी।।
बिरहणि पिवकी बाट जौवे राखल्यो नेरी।
दासी मीरा राम रटत है मैं सरण हूँ तेरी।।

अर्थ -> हे हरि, आपके सिवा मेरा कोई ठिकाना नहीं है। आप ही मेरा पालन करने वाले हैं और मैं आपकी दासी हूँ। मैं दिन -रात आपका ही नाम जपती रहती हूं और आपको ही पुकारती हूं, क्योंकि मुझे आपके दर्शन की लालसा है। मैं संसार के विकारों के बीच में घिर गई हूँ। संसार रुपी सागर में मेरी नाव टूट गई है। हे प्रभु, आप जल्दी इस नाव का पाल बाँधिए नहीं तो यह जीवन-नौका इस संसार रुपी सागर में डूब जाएगी। यह विरहिणी आपकी प्रतिक्षा कर रही है, और आपका नाम रटती रहती है। मैं आपकी शरण में आई हूँ  मुझे अपने पास रख लीजिए।
पद (3) 
फागुन के दिन चार होली खेल मना रे।
बिन करताल पखावज बाजै, अणहद की झनकार रे।
बिन सुर राग  छतीसूँ  गावै, रोम-रोम रणकार रे।।
सील संतोख की केसर घोली, प्रेम-प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे।
  

घट के पट सब खोल दिए हैं, लोकलाज सब डार रे।
‘मीरा ’ के प्रभु गिरिधर नागर, चरण कँवल बलिहार रे।।


अर्थ -> संत मीराबाई कहती हैं कि 
होली खेलने का समय केवल फागुन मास में होता है, अर्थात मानव जीवन जितना मिला है उसी में भगवान कृष्ण से पूर्ण रुप से प्रेम कर लो। संत मीराबाई के अनुसार, जब कृष्ण से प्रेम हो जाता है तब लगातार बीन, करताल, पखावज व अनहद नाद के स्वर सुनाई देने लगते हैं। बिना स्वर के ही मेरा रोम -रोम अनेक रागों में गाता रहता है। मैंने अपने प्रिय से होली खेलने के लिए शील और संतोष रुपी केसर का रंग घोला है और उनके प्रति प्रेम ही मेरी पिचकारी है। मुझे लगता है मानो पूरा आकाश गुलाल से लाल हो गया है और रंग-बिरंगी बरसात हो रही है। मैंने कृष्ण से अपना दिल खोलकर प्रेम किया है इसलिए अब लोक-लाज सब छोड़ दी है। अंत में संत मीराबाई कहती हैं कि मेरे स्वामी गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले कृष्ण भगवान हैं और मैंने उनके चरण- कमलों में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया है।


स्वाध्याय (गिरधर नागर)

(1) कन्हैया की विशेषताएँ: 
क.  गिरि को धारण करने वाले.
ख.  गायों को पालने वाले.
ग.  सिर पर मोर का मुकुट पहनने वाले.
घ.  भक्तों को संसार रुपी सागर से पार उतारने वाले.

(2) होली के समय आंनद निर्मित करने वाले घटक:
क.  करताल
ख.  पखावज
ग.  केसर गुलाल
घ.  प्रेम पिचकारी.
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