Monday, April 27, 2020

पाठ 8, पेज 33, "गजल" (कवि : माणिक वर्मा )

हिंदी लोकभारती, दसवीं कक्षा 
पाठ 8, पेज 33,
"गजल"           (कवि : माणिक वर्मा )

आपसे किसने कहा स्वर्णिम शिखर बनकर दिखो,
शौक दिखने का है तो फिर नींव के अंदर दिखो। 
अर्थ -> कवि इन पंक्तियों के माध्यम से कहना चाहते हैं कि समाज के लोग सुनहरे शिखरों के समान ही सम्मान पाना चाहते हैं परंतु वास्तव में देखा जाए तो इन शिखरों से अधिक महत्व तो उन ईंटों व पत्थरों का है जिनकी नींव पर शिखर बने हैं. इसलिए हमें प्रशंसा का लोभ त्याग कर नींव की ईंटों के समान कुछ अच्छा व मज़बूत काम करना चाहिए। 

चल पड़ी तो गर्द बनकर  आस्मानों  पर लिखो,
और अगर बैठो कहीं पर तो मील का पत्थर दिखो। 
अर्थ -> इन पंक्तियों में कवि का कहना है कि जिस तरह से धरती पर आँधी आने से धूल भी आसमान को छू लेती है, उसी प्रकार तुम भी अपने अच्छे कामों के द्वारा आसमान की ऊँचाइयाँ छू लो. यदि तुम्हें बीच में ही ठहरना पड़ जाए तो मील के पत्थर की तरह बनो जो कि पथिक को मंज़िल की ओर बढ़ने में सहायता करता है। 

सिर्फ़ देखने के लिए दिखना कोई दिखना नहीं,
आदमी हो तुम अगर तो आदमी बनकर दिखो। 
अर्थ -> कवि कहते हैं कि मानव जीवन में केवल अपने सजने- सँवरने का ही महत्त्व नहीं होता। बल्कि हमें मानवीय गुणों को अपनाना चाहिए जिसके कारण पूरा समाज हमें एक अच्छे इंसान के रूप में पहचाने। 

ज़िंदगी की शक्ल जिसमें टूटकर बिखरे नहीं,
पत्थरों के शहर में वो आईना बनकर दिखो। 
अर्थ -> हमारा व्यक्तित्व ऐसा होना चाहिए कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हम विचलित नहीं हों. हम बिना टूटे, बिना बिखरे हर परिस्थिति का  डटकर सामना करें व अपने लक्ष्य को प्राप्त करें। 

आपको महसूस होगी तब हरइक दिल की जलन,
जब किसी धागे-सा जलकर मोम के भीतर दिखो। 
अर्थ -> इन पंक्तियों में बताया गया है कि हमें प्रत्येक मानव से सहानुभूति होनी चाहिए लेकिन यह तभी संभव होगा जब हम मोमबत्ती के धागे की तरह ख़ुद जलकर दूसरों के जीवन में प्रकाश फैलाएँ। 

एक जुगनू ने कहा मैं भी तुम्हारे साथ हूँ,
वक़्त की इस धुँध में तुम रोशनी बनकर दिखो।
अर्थ -> कवि कहते हैं कि जब कभी निराशा व असफलताओं का अंधकार छाया हुआ हो, तब  एक जुगनू  की तरह हमें चमक कर, हताश व निराश लोगों के मन में आशा की किरण जगाना चाहिए। 

एक मर्यादा बनी है हम सभी के वास्ते,
गर तुम्हें बनना है मोती सीप के अंदर दिखो। 
अर्थ -> सभी मनुष्यों के लिए समाज में रहने की कुछ सीमाएँ होती हैं, जिनका पालन सबको करना पड़ता है।  जिस प्रकार सीप की सीमा के अंदर मूल्यवान मोती छिपा होता है, उसी प्रकार हमें भी सीमाओं में रह कर ही अच्छे काम करके महान बनना चाहिए। 

डर जाए फूल बनने से कोई नाज़ुक कली,
तुम ना खिलते फूल पर तितली के टूटे पर दिखो.
अर्थ -> यदि कोई कोमल कली खिलने से डर रही हो कि मेरे खिलते ही तितली रस चूसकर मुझे परेशान करेगी, तो तुम उस फूल के डर को दूर करने मदद करो। 

कोई ऐसी शक्ल तो मुझको दिखे इस भीड़ में,
मैं जिसे देखूँ उसी में तुम मुझे अक्सर दिखो। 
अर्थ -> यह संसार मनुष्यों का सागर है. भीड़ में अनगिनत चेहरे हर तरफ़ दिखाई देते हैं. हे ईश्वर, मैं चाहता हूँ कि मैं जिसे भी देखूँ, मुझे उस में तुम ही नज़र आओ। 
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स्वाध्याय  (पाठ क्रमांक 8, "गजल") 
(1) मनुष्य की अपेक्षाएँ?
क.  मानवीय गुणों को अपनाना.
ख.  निराश व हताश लोगों के मन में आशा की किरण जगाना.

(2) कवि किस तरह दिखने के लिए कह रहा है ?
क.  नींव की तरह.
ख.  मील के पत्थर की तरह.
ग.  आदमी बनकर.
घ.  आईना बनकर.
च.  धागे सा जलकर.

(3) ग़ज़ल में प्रयुक्त प्राकृतिक घटक?
क.  फूल.
ख.  तितली.
ग.  मोती.
घ.  सीप.  
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