Monday, April 27, 2020

पाठ 6, पेज 24, "गिरधर नागर" (कवि:संत मीराबाई)

हिंदी लोकभारतीदसवीं कक्षा 
पाठ 6, पेज 24
"गिरधर नागर"           (कवि : संत मीराबाई)

पद (1)
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई
जाके सिर मोर मुकट, मेरो पति सोई
छाँड़ि दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई ?
संतन ढिग बैठि-बैठि, लोक लाज खोई।
अँसुवन जल सींचि-सींचि प्रेम बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई आणँद फल होई।।
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन जब काढ़ि लियो छाछ पिये कोई।।
भगत देखी राजी हुई जगत देखि रोई।
दासी ‘मीरा’ लाल गिरिधर तारो अब मोही।।

अर्थ -> संत मीरा बाई भगवान कृष्ण के प्रति अपना प्रेम प्रकट कर रही हैं।  उनका कहना है कि गिरि को धारण करने वाले कृष्ण के सिवा मेरा कोई नहीं है।  जिनके मस्तक पर मोर का मुकुट है वही मेरे पति हैं। उनके लिए मैंने कुल की मर्यादा छोड़ दी है। संतों के साथ बैठ-बैठ कर मैंने लोक-लाज भी त्याग दी है। मैंने प्रेम रुपी बेल को अपने आँसुओं के जल से सींच-सींचकर बड़ा किया है। अब तो यह प्रेम-बेल फैल गई है और इसमें आनंद रुपी फल लगेंगे। मैंने जमे हुए दूध को मथानी से बड़े प्रेम से बिलोया और कृष्ण-प्रेम रुपी मक्खन को निकाल लिया है तथा छाछ को निस्सार छोड़ दिया है। मैं कृष्ण के भक्त को देखकर ख़ुश होती हूँ लेकिन संसार का व्यवहार देखकर रो पड़ती हूँ। हे प्यारे गिरधर! मीरा तो    आपकी दासी है, उसे इस संसार रुपी भव-सागर से पार लगाओ।

पद (2)
हरि बिन कूण गती मेरी।।
तुम मेरे प्रतिपाल कहिये मैं  रावरी चेरी।।
आदि -अंत निज नाँव तेरो हीमायें फेरी।
बेर-बेर पुकार कहूँ प्रभु आरति है तेरी।।
यौ संसार बिकार सागर बीच में घेरी।
नाव फाटी प्रभु पाल बाँधो बूडत है बेरी।।
बिरहणि पिवकी बाट जौवे राखल्यो नेरी।
दासी मीरा राम रटत है मैं सरण हूँ तेरी।।

अर्थ -> हे हरि, आपके सिवा मेरा कोई ठिकाना नहीं है। आप ही मेरा पालन करने वाले हैं और मैं आपकी दासी हूँ। मैं दिन -रात आपका ही नाम जपती रहती हूं और आपको ही पुकारती हूं, क्योंकि मुझे आपके दर्शन की लालसा है। मैं संसार के विकारों के बीच में घिर गई हूँ। संसार रुपी सागर में मेरी नाव टूट गई है। हे प्रभु, आप जल्दी इस नाव का पाल बाँधिए नहीं तो यह जीवन-नौका इस संसार रुपी सागर में डूब जाएगी। यह विरहिणी आपकी प्रतिक्षा कर रही है, और आपका नाम रटती रहती है। मैं आपकी शरण में आई हूँ  मुझे अपने पास रख लीजिए।
पद (3) 
फागुन के दिन चार होली खेल मना रे।
बिन करताल पखावज बाजै, अणहद की झनकार रे।
बिन सुर राग  छतीसूँ  गावै, रोम-रोम रणकार रे।।
सील संतोख की केसर घोली, प्रेम-प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे।
  

घट के पट सब खोल दिए हैं, लोकलाज सब डार रे।
‘मीरा ’ के प्रभु गिरिधर नागर, चरण कँवल बलिहार रे।।


अर्थ -> संत मीराबाई कहती हैं कि 
होली खेलने का समय केवल फागुन मास में होता है, अर्थात मानव जीवन जितना मिला है उसी में भगवान कृष्ण से पूर्ण रुप से प्रेम कर लो। संत मीराबाई के अनुसार, जब कृष्ण से प्रेम हो जाता है तब लगातार बीन, करताल, पखावज व अनहद नाद के स्वर सुनाई देने लगते हैं। बिना स्वर के ही मेरा रोम -रोम अनेक रागों में गाता रहता है। मैंने अपने प्रिय से होली खेलने के लिए शील और संतोष रुपी केसर का रंग घोला है और उनके प्रति प्रेम ही मेरी पिचकारी है। मुझे लगता है मानो पूरा आकाश गुलाल से लाल हो गया है और रंग-बिरंगी बरसात हो रही है। मैंने कृष्ण से अपना दिल खोलकर प्रेम किया है इसलिए अब लोक-लाज सब छोड़ दी है। अंत में संत मीराबाई कहती हैं कि मेरे स्वामी गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले कृष्ण भगवान हैं और मैंने उनके चरण- कमलों में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया है।


स्वाध्याय (गिरधर नागर)

(1) कन्हैया की विशेषताएँ: 
क.  गिरि को धारण करने वाले.
ख.  गायों को पालने वाले.
ग.  सिर पर मोर का मुकुट पहनने वाले.
घ.  भक्तों को संसार रुपी सागर से पार उतारने वाले.

(2) होली के समय आंनद निर्मित करने वाले घटक:
क.  करताल
ख.  पखावज
ग.  केसर गुलाल
घ.  प्रेम पिचकारी.
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