Monday, April 27, 2020

दूसरी इकाई - पाठ 11, पेज 97, “समता की ओर” (कवि: श्री मुकुटधर पांडेय)

हिंदी लोकभारतीदसवीं कक्षा 
दूसरी इकाई - पाठ 11, पेज 97,
“समता की ओर”           (कवि: श्री मुकुटधर पांडेय)

(पद 1)   
बीत गया हेमंत भ्रात, शिशिर ऋतु आई !
प्रकृति हुई  द्युतिहीन , अवनि में कुंझटिका है छाई ।
अर्थ -> कवि कहते हैं कि हेमंत ऋतु का समय बीत गया, और अब शिशिर ऋतु का आगमन हो गया है। शिशिर ऋतु की कँपा देने वाली ठंड के कारण प्रकृति की आभा ख़त्म हो गई और पृथ्वी पर  धुँधलका छा गया है।

(पद 2)   
पड़ता  खूब तुषार पद्मदल तालों में  बिलखाते ,
अन्यायी नृप के दंडों से यथा लोग दुख पाते ।
अर्थ -> ठंड के कारण ख़ूब बर्फ़ गिर रही है। इससे तालाबों में खिले हुए कमल के फूलो को बहुत कष्ट हो रहा है। कवि कहते हैं ये कष्ट उसी तरह का है, जैसे किसी निर्दयी और अन्यायी राजा के तरह-तरह के दंडों से उसके राज्य की प्रजा दुखी होती है।

(पद 3)
निशा काल में लोग घरों में निज-निज जा सोते हैं,
बाहर श्वान, स्यार चिल्लाकर बार-बार रोते हैं।
अर्थ -> रात्रि के समय ठंड हो जाती है। ऐसे समय लोग अपने-अपने घरों में जाकर सो जाते हैं। पर बाहर कुत्तों और सियार जैसे जानवरों का ठंड के मारे बुरा हाल होता है। वे असहाय प्राणी चिल्ला-चिल्लाकर सारी रात रोते रहते हैं।

(पद 4)   
अर्द्ध रात्रि को घर से कोई जो आँगन को  आता,
शून्य गगन मंडल को लख यह मन में है भय पाता ।
अर्थ -> आधी रात को यदि कोई व्यक्ति घर के आँगन में आकर सूने आकाश की ओर देखता है, तो वहाँ का अंधेरा दृश्य देखकर उसे डर लगने लगता है।

(पद 5)   
तारे निपट मलीन चंद ने पांडुवर्ण  है पाया,
मानो किसी राज्य पर है, राष्ट्रीय कष्ट कुछ आया ।
अर्थ -> ठंडक भरे इस मौसम में आकाश के तारे भी धुँधले दिखाई देते हैं और चंद्रमा का सफेद रंग भी पीलापन लिए हुए है। यह सब देखकर ऐसा लगता है, जैसे किसी राज्य पर कोई राष्ट्रीय संकट आ गया हो।

(पद 6)   
धनियों को है मौज रात-दिन हैं उनके पौ-बारे,
दीन दरिद्रों के मत्थे ही पड़े शिशिर दुख सारे ।
अर्थ -> कवि कहते हैं कि शिशिर ऋतु की कष्टदायी ठंड के दुख केवल लाचार व ग़रीबों के लिए ही हैं। धनिक वर्ग के लोगों को तो रात-दिन आनंद ही आनंद है क्योंकि उनके पास ठंड से बचने की सब सुविधाएँ होती हैं।

(पद 7)   
वे खाते हैं हलवा-पूरी, दूध-मलाई ताजी,
इन्हें नहीं मिलती पर सूखी रोटी और न भाजी । 
अर्थ -> धनिक वर्ग के लोग हलवा-पूड़ी और ताजी दूध-मलाई खाते हैं और ठंड का भी आनंद लेते हैं, लेकिन लाचार और ग़रीबों को सूखी रोटी व सब्जी भी नसीब नहीं होती।

(पद 8)   
वे सुख से रंगीन कीमती ओढ़ें शाल-दुशाले,
पर इनके कंपित बदनों पर गिरते हैं नित पाले।
अर्थ -> धनिक लोग रंगीन और मूल्यवान शाल-दुशाले ओढ़ते हैं जिससे उन्हें ठंड नहीं लगती। किन्तु ऐसे समय में गरीबों को ठंड से काँपते हुए रातें काटनी पड़ती हैं, और उन्हें प्रतिदिन पाले का भी सामना करना पड़ता है।

(पद 9)   
वे हैं सुख साधन से पूरित सुधर घरों के वासी,
इनके टूटे-फूटे घर में छाई सदा उदासी।
अर्थ -> अमीर लोगों के पास सुख के कई साधन होते हैं और वे सुंदर घरों में रहते हैं। दूसरी ओर लाचार व ग़रीब लोग टूटे-फूटे घरों व झोंपड़ियों में रहते हैं जहाँ सुविधाएँ नहीं होती। वहाँ सदा उदासी का माहौल रहता है।

(पद 10)   
पहले हमें उदर की चिंता थी न कदापि सताती,
माता सम थी प्रकृति हमारी पालन करती जाती ।।
अर्थ -> पहले सब लोग प्रकृति पर निर्भर रहते थे। किसी को पेट भरने की चिंता नहीं होती थी, क्योंकि प्रकृति से ही सारी आवश्यकताएँ पूरी हो जाती थी। वह माँ की तरह हमारा पालन-पोषण करती थी।

(पद 11)   
हमको भाई का करना उपकार नहीं क्या होगा,
भाई पर भाई का कुछ अधिकार नहीं क्या होगा।
अर्थ -> कवि कहते हैं कि मनुष्य-मनुष्य में कोई अंतर नहीं होता। सभी का आपस में भाई-भाई का नाता है। एक भाई का दूसरे भाई पर कुछ न कुछ अधिकार होता ही है। इसलिए हमारे मन में एक दूसरे पर उपकार करने की भावना होनी चाहिए।

स्वाध्याय (“समता की ओर”)

निम्न मुद्दों के आधार पर पद्य विश्लेषण :-

रचनाकार: मुकुटधर पांडेय.
रचना का प्रकार: नई कविता.
पसंद की पंक्तियाँ :
    "हमको भाई का करना उपकार नहीं क्या होगा,
    भाई पर भाई का कुछ अधिकार नहीं क्या होगा।"
    पसंद होने का कारण : जन्म से सभी मनुष्य एक जैसे होते हैं। मनुष्य का आपस में भाई-भाई का       नाता होता है । इन पंक्तियों में कहा गया है कि आपस में एक-दूसरे का उपकार करने की भावना        मनुष्य में होनी चाहिए।
रचना से प्राप्त संदेश: सभी मनुष्य समान होते हैं।कोई भी अपने को बड़ा या छोटा नहीं समझे। मनुष्य को एक - दूसरे का उपकार करना चाहिए।
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