हिंदी लोकभारती, दसवीं कक्षा
दूसरी इकाई - पाठ 1, पेज नंबर 51
“बरषहिं जलद” (कवि : गोस्वामी तुलसीदास)
(पद 1) चौपाई
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा ।।
दामिनि दमक रहहिं घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ।।
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध विद्या पाएँ ।।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसे ।।
छुद्र नदी भरि चली तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई ।।
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहिं माया लपटानी ।।
समिटि-समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ।।
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होई अचल जिमि जिव हरि पाई ।।
अर्थ -> कवि कहते हैं कि आकाश में बादल उमड़-घुमड़कर भयंकर गर्जना कर रहे हैं । (श्रीरामजी कह रहे हैं कि) प्रिया (श्रीसीता जी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली आकाश में ऐसे चमक रही है, जैसे कि दुष्ट व्यक्ति की क्षणिक मित्रता जो बिजली की तरह चमक कर लुप्त हो जाती है।
बादल पृथ्वी के काफ़ी नीचे उतरकर बरस रहे हैं। ठीक उसी प्रकार विद्वान व्यक्ति भी विद्या प्राप्त करके विनम्र हो जाते हैं। बूँदों की चोट पहाड़ पर पड़ रही है और पहाड़ बूँदों के प्रहार को शांत भाव से सह रहे हैं, जिस प्रकार संत पुरुष दुष्टों के कटु वचनों को सह लेते हैं।
छोटी नदियाँ बारिश के जल से भरकर अपने किनारों को तोड़ती हुई आगे बढ़ रही हैं, जैसे कि थोड़ा-सा धन पाकर ही दुष्ट लोग इतराने लगते हैं। बरसात का पानी धरती पर गिरते ही गंदा हो रहा है, ऐसा लग रहा जैसे प्राणी से माया लिपट गई है।
बारिश का पानी एकत्र होकर तालाबों में भर रहा है। जिस तरह सज्जन व्यक्ति के पास अच्छे गुण चले आते हैं।
(पद 3) चौपाई
दादुर धुनि चहुँ दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ।।
नव पल्लव भए बिटप अनेका, साधक मन जस मिले बिबेका ।।
अर्क-जवास पात बिनु भयउ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ ।।
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं घूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहिं दूरी ।।
ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी ।।
निसि तम घन खद्योत बिराजा । जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा।।
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह-मद-माना ।।
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहिं पाइ जिमि धर्म पराहीं ।।
विविध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाई सुराजा ।।
जहँ-तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजे ज्ञाना ।।अर्थ -> कवि कहते हैं कि बारिश में चारों दिशाओं से आती हुई मेंढकों की आवाज़ ऐसी लगती है मानो विद्यार्थियों का समूह वेद-पाठ कर रहा हो। अनेक वृक्षों पर नई कोंपलें आ गई हैं, वे ऐसे सुहावने लग रहे हैं, जैसे कि साधना करने वाले व्यक्ति का मन ज्ञान प्राप्त होने पर प्रफुल्लित हो जाता है।
मदार और जवासा के पौधें पत्तों से रहित हो गए हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानों अच्छे शासक के राज्य में दुष्टों का धंधा चला गया हो। अब धूल खोजने पर भी कहीं नहीं मिलती है। जैसे कि क्रोध हमें धर्म से दूर कर देता है, उसी प्रकार बारिश ने धूल को नष्ट कर दिया है।I
अनाज से लहलहाती हुई पृथ्वी कुछ इस प्रकार शोभायमान हो रही है, जैसे उपकार करने वाले व्यक्ति की संपति शोभा पाती है। रात के अंधेरे में जुगनू चारों ओर दिखाई दे रहे हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे घमंडियों का समूह एकत्र हो गया है।
चतुर किसान अपनी फ़सलों से घास- फूस निकाल कर फेंक रहे हैं। इसे देखकर ऐसा लगता जैसे विद्वान लोग मोह, मद व घमंड का त्याग कर रहे हों।
बरसात के दिनों में चकवा पक्षी कहीं नहीं दिखाई दे रहा है। यह ऐसा लगता है जैसे कलियुग में धर्म पलायन कर गया हो।
यह पृथ्वी अनेक प्रकार के जीवों से भरी पड़ी है। यह उसी तरह शोभायमान हो रही है, जैसे अच्छे राजा के राज्य में प्रजा का विकास होता है।
यहाँ-वहाँ अनेक राही थककर इस तरह ठहरे हुए हैं, जैसे मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होने पर इंद्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और वासना की ओर जाना छोड़ देती हैं।
बादल पृथ्वी के काफ़ी नीचे उतरकर बरस रहे हैं। ठीक उसी प्रकार विद्वान व्यक्ति भी विद्या प्राप्त करके विनम्र हो जाते हैं। बूँदों की चोट पहाड़ पर पड़ रही है और पहाड़ बूँदों के प्रहार को शांत भाव से सह रहे हैं, जिस प्रकार संत पुरुष दुष्टों के कटु वचनों को सह लेते हैं।
छोटी नदियाँ बारिश के जल से भरकर अपने किनारों को तोड़ती हुई आगे बढ़ रही हैं, जैसे कि थोड़ा-सा धन पाकर ही दुष्ट लोग इतराने लगते हैं। बरसात का पानी धरती पर गिरते ही गंदा हो रहा है, ऐसा लग रहा जैसे प्राणी से माया लिपट गई है।
बारिश का पानी एकत्र होकर तालाबों में भर रहा है। जिस तरह सज्जन व्यक्ति के पास अच्छे गुण चले आते हैं।
नदी का पानी समुद्र में जाकर उसी प्रकार स्थिर हो जाता है जिस प्रकार जीव भी हरि को प्राप्त करके अचल हो जाता है यानि मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
(पद 2) दोहा
हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परहि नहिं पंथ ।
जिमि पाखंड बिबाद तें, लुप्त होहिं सदग्रंथ ।।
अर्थ -> पृथ्वी हरी-भरी हो जाने पर घास भी बड़ी हो गई है, जिससे रास्तों का पता ही नहीं चल रहा है। यह दृश्य ऐसा लगता है, जैसे पाखंडीयों के बेकार विवाद के कारण अच्छे ग्रंथ लुप्त हो जाते हैं।
(पद 2) दोहा
हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परहि नहिं पंथ ।
जिमि पाखंड बिबाद तें, लुप्त होहिं सदग्रंथ ।।
अर्थ -> पृथ्वी हरी-भरी हो जाने पर घास भी बड़ी हो गई है, जिससे रास्तों का पता ही नहीं चल रहा है। यह दृश्य ऐसा लगता है, जैसे पाखंडीयों के बेकार विवाद के कारण अच्छे ग्रंथ लुप्त हो जाते हैं।
(पद 3) चौपाई
दादुर धुनि चहुँ दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ।।
नव पल्लव भए बिटप अनेका, साधक मन जस मिले बिबेका ।।
अर्क-जवास पात बिनु भयउ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ ।।
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं घूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहिं दूरी ।।
ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी ।।
निसि तम घन खद्योत बिराजा । जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा।।
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह-मद-माना ।।
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहिं पाइ जिमि धर्म पराहीं ।।
विविध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाई सुराजा ।।
जहँ-तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजे ज्ञाना ।।अर्थ -> कवि कहते हैं कि बारिश में चारों दिशाओं से आती हुई मेंढकों की आवाज़ ऐसी लगती है मानो विद्यार्थियों का समूह वेद-पाठ कर रहा हो। अनेक वृक्षों पर नई कोंपलें आ गई हैं, वे ऐसे सुहावने लग रहे हैं, जैसे कि साधना करने वाले व्यक्ति का मन ज्ञान प्राप्त होने पर प्रफुल्लित हो जाता है।
मदार और जवासा के पौधें पत्तों से रहित हो गए हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानों अच्छे शासक के राज्य में दुष्टों का धंधा चला गया हो। अब धूल खोजने पर भी कहीं नहीं मिलती है। जैसे कि क्रोध हमें धर्म से दूर कर देता है, उसी प्रकार बारिश ने धूल को नष्ट कर दिया है।I
अनाज से लहलहाती हुई पृथ्वी कुछ इस प्रकार शोभायमान हो रही है, जैसे उपकार करने वाले व्यक्ति की संपति शोभा पाती है। रात के अंधेरे में जुगनू चारों ओर दिखाई दे रहे हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे घमंडियों का समूह एकत्र हो गया है।
चतुर किसान अपनी फ़सलों से घास- फूस निकाल कर फेंक रहे हैं। इसे देखकर ऐसा लगता जैसे विद्वान लोग मोह, मद व घमंड का त्याग कर रहे हों।
बरसात के दिनों में चकवा पक्षी कहीं नहीं दिखाई दे रहा है। यह ऐसा लगता है जैसे कलियुग में धर्म पलायन कर गया हो।
यह पृथ्वी अनेक प्रकार के जीवों से भरी पड़ी है। यह उसी तरह शोभायमान हो रही है, जैसे अच्छे राजा के राज्य में प्रजा का विकास होता है।
यहाँ-वहाँ अनेक राही थककर इस तरह ठहरे हुए हैं, जैसे मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होने पर इंद्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और वासना की ओर जाना छोड़ देती हैं।
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